Thursday 14 February 2013

दो पल का मेहमान

ढलता हुआ शाम हूँ मै ,
दो पल का मेहमान हूँ मै ।

जी करता है इस दो पल में ज़िन्दगी जी लूँ  ,
अपने हिस्से की सारी हँसी पी लूँ ।
आँखों में नए ख्वाब सजा लूँ ,
कटी  पतंग की डोर चुरा लूँ ।
ज़िन्दगी के हर एक हसीं लम्हों को ,
मै एक बार फिर से दोहरा लूँ ।
मगर उसकी लीला से अनजान हूँ मैं ,
दो पल का मेहमान हूँ मै ।

जी करता है दिल की बात बतलाऊ  ,
खुद को हँसाऊ खुद को रुलाऊ  ।
माँ की गोद को फिर तकिया बनाऊ ,
बाबा के कंधो पर फिर सवार हो जाऊ ।
उनके दिल में बसे हर चाहत को,
धीरे धीरे सब सच कर जाऊ ।
किसी की आँखों का अरमान हूँ मै,
दो पल का मेहमान हूँ मै ।

तुमसे किये सारे वादे पुरे कर लेता ,
जो मुझे वो कुछ समय और दे देता ।
तुम रूठती तो तुम्हे फिर मना  लेता ,
तुम्हे फिर अपनी धडकनों मे बसा लेता ।
तुम्हारे हाथो को थाम  कर ,
फिर नज़रों से नज़रे मिला लेता।

मगर क्या करूँ ?

ढलता हुआ शाम हूँ मै ,
दो पल का मेहमान हूँ  मै ।


                                    --ऋषभ प्रकाश 

2 comments:

  1. Wow. This is so very beautiful Rishabh.
    "Kisi ki aankhon ka arman hun main,
    Do pal ka mehman hun main"
    These lines just touched my heart... you have done the title so much justice.
    I have started to absolutely love your poems by now, the sincerity with which you write them is so endearing.
    I like the honesty, I like the transparent hope your poem sings of, keep writing this way :)

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    1. Although I dono have much followers and viewers..but still comments like this boosts me up to continue...Thanks for the lovely comments..:-)

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