Tuesday, 5 November 2013

बिन बोले तू कहाँ उड़ गई ।

बोल मुझे ओ  मेरी कोयल ,
बिन बोले तू कहाँ  उड़ गई ।

पीछे पीछे आ जाता मैं ,
पाँव जो तेरे घुंगरू होती ।
हाँथ कभी ना छोड़ता मैं ,
एक बार जो केह दी होती ।
क्यों  चुपके से ?
क्यों धीरे से?
कर अकेला फुर्र हो गयी ।
बोल मुझे ओ मेरी कोयल ,
बिन बोले तू कहाँ  उड़ गई ।

वक़्त का भी कसूर नहीं है ,
वक़्त को तो बदलना है।
इस बात से मैं अनजान नहीं हूँ ,
अब मुझे अकेला चलना है ।
फिर क्यों  ?
फिर क्यों अचानक याद तेरी ,
मुझे उस दौर ले जाती है,
जहाँ हम  थे , जहाँ तुम थी ,
और मुस्कान हमारी  होठों पर।
जहाँ वक़्त भी जैसे ठहर गया था ,
हैम दोनों को साथ देख कर ।
मिलो कभी तो पूछ लू तुमसे ,
बोल मुझे ओ मेरी कोयल ,
बिन बोले तू कहाँ  उड़ गई ।

आज भी गहरी  नींदों में  ,
मैं तुझसे मिला करता हूँ ।
आज भी खालीपन में  ,
मैं  याद तुझे बस करता हूँ ।
फिर अचानक क्यो ना जाने,
दिल धीरे से बोलता है ,
लौट आ, अब तो शाम हो गई ।
बोल मुझे ओ मेरी कोयल ,
बिन बोले तू कहाँ  उड़ गई ।
               -ऋषभ प्रकाश
 











Thursday, 25 July 2013

ये जिस्म है ,जिस्म तुम्हारा है |


छू कर खुद  को कर यकी तू ,
ये तू है ,जिस्म  तुम्हारा है|
झाँक ले खुद में ,देख कभी तू ,
तुझमे भी एक सितारा है|

खुद को अपना यार बना ले,
खुद से थोड़ा प्यार जता ले|
खुद पर कर के देख यकी तू ,
तू ही अब तेरा  सहारा है|

कदमो को अब रोक नहीं तू ,
उड़ने दे मन अब टोक नहीं तू |
बह जाने दे बस अब खुद को ,
तेरा ना कोई किनारा है|

छू कर खुद को कर यकी तू ,
ये तू है ,जिस्म  तुम्हारा है|

                                     -ऋषभ प्रकाश

Thursday, 14 February 2013

दो पल का मेहमान

ढलता हुआ शाम हूँ मै ,
दो पल का मेहमान हूँ मै ।

जी करता है इस दो पल में ज़िन्दगी जी लूँ  ,
अपने हिस्से की सारी हँसी पी लूँ ।
आँखों में नए ख्वाब सजा लूँ ,
कटी  पतंग की डोर चुरा लूँ ।
ज़िन्दगी के हर एक हसीं लम्हों को ,
मै एक बार फिर से दोहरा लूँ ।
मगर उसकी लीला से अनजान हूँ मैं ,
दो पल का मेहमान हूँ मै ।

जी करता है दिल की बात बतलाऊ  ,
खुद को हँसाऊ खुद को रुलाऊ  ।
माँ की गोद को फिर तकिया बनाऊ ,
बाबा के कंधो पर फिर सवार हो जाऊ ।
उनके दिल में बसे हर चाहत को,
धीरे धीरे सब सच कर जाऊ ।
किसी की आँखों का अरमान हूँ मै,
दो पल का मेहमान हूँ मै ।

तुमसे किये सारे वादे पुरे कर लेता ,
जो मुझे वो कुछ समय और दे देता ।
तुम रूठती तो तुम्हे फिर मना  लेता ,
तुम्हे फिर अपनी धडकनों मे बसा लेता ।
तुम्हारे हाथो को थाम  कर ,
फिर नज़रों से नज़रे मिला लेता।

मगर क्या करूँ ?

ढलता हुआ शाम हूँ मै ,
दो पल का मेहमान हूँ  मै ।


                                    --ऋषभ प्रकाश 

Thursday, 10 January 2013

26 दिसम्बर ,2011
मैं  कश्मीर के एक ऐसे जगह पर था जो  L.O.C. के बेहद करीब है ।
अपने परिवार के साथ जब मैं  कश्मीर के खूबसूरत  नज़ारों का आनंद उठा रहा था ,ठीक उसी वक्त मैने  सड़क के किनारे,बन्दूक सम्हाले ,एक जवान  को बैठे देखा ।चेहरे से उदास दिख रहे उस जवान के मन में क्या चल रहा होगा यह तो मै नहीं बता सकता मगर इसकी कल्पना ज़रूर कर सकता हूँ ।इसी कल्पना की एक झलक  मैं अपनी एक कविता से देना चाहूँगा ।





आँगन तेरे लौट आऊँगा 

वादा तुझसे करता हूँ माँ ,
आँगन तेरे लौट आउँगा ।

जानता हूँ मुझ बिन तू माँ ,
गुमसुम गुपचुप रहती होगी ।
जानता हूँ खुद ही खुद में ,
मेरी बातें करती होगी ।
डरती होगी अन्दर अन्दर .
दूर कहीं मैं खो जाऊँगा ।
वादा तुझसे करता हूँ माँ ,
आँगन तेरे लौट आउँगा ।

 रोटी तेरी याद आती है ,
जब भी भोजन करता हूँ मैं ।
आँखे मेरी भर आती हैं ,
ख़त जो तेरी पढ़ता हूँ मैं ।
फिर ख़त से यह मैं पूछता हूँ ,
अगली ख़त क्या पढ़ पाउँगा ?
 वादा तुझसे करता हूँ माँ ,
आँगन तेरे लौट आउँगा ।

सोंचो जो चुपके से मैं घर पर ,
तुझसे मिलने को आ जाउँ ।
बावरी सी तू हो जाए ,
मैं भी धीरे से मुसकाऊँ । 
फिर मैं अपनी होश गँवा कर ,
सीने तेरे लिपट जाउँगा ।
वादा तुझसे करता हूँ माँ ,
आँगन तेरे लौट आउँगा ।

मिट गया जो देश की खातिर ,
दिल में तेरे सदा रहूँगा ।
बन कर खून मैं भारत का ,
नसों में तेरी बहा करूँगा ।
या फिर सपनों में रातों को ,
तुझसे मिलने आ जाऊँगा ।
 वादा तुझसे करता हूँ माँ ,
आँगन तेरे लौट आउँगा ।

                                --ऋषभ  प्रकाश