Friday, 26 September 2014

प्रीत

जिसे देखो वह प्रीत का दाता ,
प्रीत क्यों फिर करीब नहीं है ?

उनके मधुर आवाज़ में भी ,
मनमोहक अंदाज़ में भी ।
ऐतबार जिन पर हर बार हुआ ,
उनके हर अलफ़ाज़ में भी ।
ढूंढता रहा यह सोंच कर कि,
यह प्रीत की हीं मंडी है,
प्रीत का कोई गरीब नहीं है ।
जिसे देखो वह प्रीत का दाता ,
प्रीत क्यों फिर करीब  नहीं है ?

यथार्थपूर्ण बातों में भी ,
वचनों में, वादों में भी ।
हमदर्द मुझे बनाने के,
उनके हर इरादों में भी ।
टटोलता रहा यह सोंच कर कि ,
मिल जाएगी किसी के दर पर
प्रीत महँगी चीज़ नहीं है।
जिसे देखो वह प्रीत का दाता ,
प्रीत क्यों फिर करीब  नहीं है ?

                         -ऋषभ प्रकाश




























Friday, 7 March 2014

बचपन


"अरे रुको तो आ रही हूँ ! एक सेकंड का भी इंतजार नहीं किया जाता इस लड़के से। मैं क्या हवाईजहाज़ हूँ जो उड़ कर आ जाउ दरवाज़े तक?" अंश की माँ ने दरवाजे की तरफ बढ़ते हुए कहा। दरवाजे पर ज़ोर-ज़ोर  की दस्तक से माँ समझ चुकि थी कि उसका लाडला बेटा अंश अपनी कोचिंग क्लास से लौट आया है।
 
        दरवाज़ा खुलते ही अंश झटके से अंदर आया और सीधा अपने कमरे की ओर दौड़ा। "अरे क्या हुआ? इतनी जल्दी मे क्यूँ हो?" कहते हुए माँ ने उसका पीछा किया। "माँ आज फिर मैं लेट हो गया। आज फिर छः बजने को है और अब अनिल और अर्जुन मुझे मैच मे शामिल नहीं करेंगे। "कहते हुए अंश ने अपना बस्ता पटका। स्कूल की यूनिफार्म बदले बिना उसने बल्ला उठाया और बाहर की ओर भागा। "अरे बेटा कुछ खा कर तो जा " माँ ने उसे रोकते हुए कहा। मगर अंश कहाँ सुनने वाला था। उसे तो बस किसी तरह मैच में शामिल होने की धुन थी।

      अंश अब आठवीं कक्षा मे था। अब उसकी दिनचर्या भी काफी कड़ी हो चुकी थी। सुबह सात से दोपहर दो तक स्कूल हुआ करती थी और उसके बाद चार घंटे की कोचिंग क्लास। जब तक वो कोचिंग से लौटता, छः बज जाते थे और तब तक बाकी बच्चों का खेल समापन पर होता। रोज़ की अब यही कहानी थी। यहाँ तक कि शनिवार और रविवार भी अब स्कूल और कोचिंग के होमवर्क मे हीं निकल जाते थे।

अंश जब दौड़ते भागते कालोनी के पीछे वाले मैदान तक पहुँचा तो उसने अर्जुन को बल्लेबाजी करते देख राहत की साँस ली। उसे इस बात की ख़ुशी थी कि खेल अब तक जारी है।
"अर्जुन , मैं किसकी टीम मे?" अंश ने दूर से ही आवाज़ लगा कर पूछा।
"अंश तू फिर लेट हो गया है। मैच की पहली पारी समाप्त हो चुकी है और इस वक़्त हम तुझे  मैच में शामिल नहीं कर सकते।" कहते हुए अर्जुन ने उसकी तरफ से मुंह मोड़ लिया और अगली गेंद के लिए खुद को तैयार करने लगा।
"मगर अर्जुन मै सिर्फ आधा घंटा हीं तो लेट हुआ हूँ। मेरे कोचिंग क्लासेस  के वजह से मुझे आने में थोड़ी  देर हो गई। आज शामिल कर ले, मैं आइंदे से जल्दी आने की कोशिश करूँगा।  "
"यह तेरा रोज़ का बहाना है अंश। तू हर दिन यही बात कहता है और हर दिन ऐसे हीं लेट आता है। माफ़ करना अंश मगर आज हमारा खेल काफी आगे निकल चूका है और दोनों पक्षो में ११ ख़िलाड़ी पूरे हो चुके हैं । "कह कर अर्जुन ने गेंदबाज को गेंद डालने का इशारा किया।

अंश ने दोबारा अर्जुन से कोई अपील नहीं की। वह चुप चाप मैदान के घेरे से बाहर निकल गया।अंश अभी कुछ ही कदम घर की तरफ चला था कि उसके कदम अचानक थम गए। उसके मन में अचानक कई सारी बाते चलने लगीं ,कई सारे सवाल उमड़ने लगे।  वह जैसे उलझ सा गया था और अपनी उलझी पहेली सुलझाना चाहता था। अपनी नीरस दिनचर्या से तंग आ चुका अंश कुछ समय निकाल कर खुद से समझौता करना चाहता था। उसे पता था घर पर, पहले स्कूल के होमवर्क और फिर कोचिंग के होमवर्क उसका इंतज़ार कर रहे हैं। उसे पता था घर पहुँचते हीं वह पुनः पढ़ाई की उसी चक्र में उलझने वाला है।

अंश सड़क के किनारे के एक छोटे से पार्क में बने खाली बेंच पर जा बैठा। उसी पार्क में कई छोटे बच्चे आपस में तरह-तरह के खेल खेलने में मग्न थे। उनके चेहरों पर ना कोई निराशा के चिंह नज़र आ रहे थे और ना माथे पर किसी चिंता की लकीर। आँखों में चमक लिए, बेपरवाह खेलते बच्चों  को देख कर अंश ने खुद से पूछा "क्या मैं अब बड़ा हो गया हूँ? क्या अब मुझे इन बच्चों की तरह बेफिक्र हो कर खेलने का कोई हक़ नही? क्या ज़िन्दगी में ज़िम्मेदारिओ का आना मतलब बचपन का मर जाना होता है? क्या मेरा बचपन अब कभी नहीं लौटेगा?"

ऐसे अनगिनत सवालों के बीच घिर गया था अंश। छठी कक्षा तक अंश प्रत्येक शाम खेलने जाया करता था । अंश एक अच्छा क्रिकेटर था। उसकी क्रिकेट में रुचि देख उसके पिता ने उसके जन्म दिन पर उसे एक "क्रिकेट किट" उपहार दिया था।  उसने अपने स्कूल मे होने वाले वार्षिक क्रिकेट मैच टूर्नामेंट में कई पुरुस्कार जीते थे। मगर आठवी कक्षा में प्रवेश के बाद सब कुछ बदल गया। अंश के पिता उसे इंजीनियर बनाना चाहते थें। इसी होड़ में उन्होंने अंश का दाखिला पास के एक आई. आई. टी. कोचिंग सेंटर मे करवा दिया। फिर क्या था। स्कूल और फिर चार घंटे की  कोचिंग के बाद अंश मे न खेल-कूद के लिए ऊर्जा बचती थी और ना उत्साह। पढ़ाई अब उसके लिए बोझ बन गया था जिसे वह जैसे-तैसे ढ़ो रहा था। पढ़ाई उस पर इस तरह हावी हो गया था कि वह अंदर ही अंदर घुटन महसूस करने लगा था। लाख कोशिशों के बाद भी वह अपने लिए समय निकालने में असमर्थ था। अंश शिकार था एक ऐसे भगदड़ का जो न जाने भारत के कितने बच्चों को कुचल चुका था। अंश अपने पिता को निराश किये बगैर उस भगदड़ से बाहर आना चाहता था। वह जीना चाहता था। अंश उदास था। परेशान था।

अंश विचार धारा मे इतना लीन हो गया कि उसे समय का पता ही नहीं चला। अंधकार हो चुकी थी। सारे बच्चे जा चुके थे। अंश अब उस पार्क में अकेला बचा था। भारी मन से उसने अपना बल्ला उठाया और घर की तरफ रवाना हो गया।

मगर कुछ और भी हुआ उस शाम। वापस घर लौटते वक़्त, अंश ने इन सारे दुविधाओं के बीच एक प्रण लिया  कि वह अपने पिता से कह  कर कोचिंग क्लास हमेशा के लिए छोड़ देगा।  उसमे  एक कामयाब इंसान बन ने  की इच्छा ज़रूर  थी मगर उसके बदले वह अपना बचपन दाँव पर नहीं लगा सकता  था। अंश अब भी बच्चा था और उसे अपना बचपन जीने का पूरा हक़ था।

                                                                                                           -ऋषभ प्रकाश

  

Saturday, 8 February 2014

यार वो मेरा याद रहेगा ।

चार पहर जब था अँधेरा ,
क्या सूरज कैसा सवेरा।
छिप ना पाए आँसू खुद से।,
भीड़ में भी  था  अकेला।

क्या हुआ फिर समझ न पाया ,
मुझे मिली कोई ऐसी छाया।
कुछ पल को फिर लगा मुझे यू ,
बरस गई हो उनकी माया।

हसना सीख गया था मै अब,
गम को भूल रहा  था मै अब।
जीवन  काया  पलट रही थी,
यादे भुला  रहा था मै सब।

यार वो मेरा याद रहेगा ,
हर दम मेरे साथ रहेगा।
फिर से ज़िन्दा किया है जिसने ,
उम्र भर एहसान रहेगा।
               
               -ऋषभ प्रकाश










Tuesday, 5 November 2013

बिन बोले तू कहाँ उड़ गई ।

बोल मुझे ओ  मेरी कोयल ,
बिन बोले तू कहाँ  उड़ गई ।

पीछे पीछे आ जाता मैं ,
पाँव जो तेरे घुंगरू होती ।
हाँथ कभी ना छोड़ता मैं ,
एक बार जो केह दी होती ।
क्यों  चुपके से ?
क्यों धीरे से?
कर अकेला फुर्र हो गयी ।
बोल मुझे ओ मेरी कोयल ,
बिन बोले तू कहाँ  उड़ गई ।

वक़्त का भी कसूर नहीं है ,
वक़्त को तो बदलना है।
इस बात से मैं अनजान नहीं हूँ ,
अब मुझे अकेला चलना है ।
फिर क्यों  ?
फिर क्यों अचानक याद तेरी ,
मुझे उस दौर ले जाती है,
जहाँ हम  थे , जहाँ तुम थी ,
और मुस्कान हमारी  होठों पर।
जहाँ वक़्त भी जैसे ठहर गया था ,
हैम दोनों को साथ देख कर ।
मिलो कभी तो पूछ लू तुमसे ,
बोल मुझे ओ मेरी कोयल ,
बिन बोले तू कहाँ  उड़ गई ।

आज भी गहरी  नींदों में  ,
मैं तुझसे मिला करता हूँ ।
आज भी खालीपन में  ,
मैं  याद तुझे बस करता हूँ ।
फिर अचानक क्यो ना जाने,
दिल धीरे से बोलता है ,
लौट आ, अब तो शाम हो गई ।
बोल मुझे ओ मेरी कोयल ,
बिन बोले तू कहाँ  उड़ गई ।
               -ऋषभ प्रकाश
 











Thursday, 25 July 2013

ये जिस्म है ,जिस्म तुम्हारा है |


छू कर खुद  को कर यकी तू ,
ये तू है ,जिस्म  तुम्हारा है|
झाँक ले खुद में ,देख कभी तू ,
तुझमे भी एक सितारा है|

खुद को अपना यार बना ले,
खुद से थोड़ा प्यार जता ले|
खुद पर कर के देख यकी तू ,
तू ही अब तेरा  सहारा है|

कदमो को अब रोक नहीं तू ,
उड़ने दे मन अब टोक नहीं तू |
बह जाने दे बस अब खुद को ,
तेरा ना कोई किनारा है|

छू कर खुद को कर यकी तू ,
ये तू है ,जिस्म  तुम्हारा है|

                                     -ऋषभ प्रकाश

Thursday, 14 February 2013

दो पल का मेहमान

ढलता हुआ शाम हूँ मै ,
दो पल का मेहमान हूँ मै ।

जी करता है इस दो पल में ज़िन्दगी जी लूँ  ,
अपने हिस्से की सारी हँसी पी लूँ ।
आँखों में नए ख्वाब सजा लूँ ,
कटी  पतंग की डोर चुरा लूँ ।
ज़िन्दगी के हर एक हसीं लम्हों को ,
मै एक बार फिर से दोहरा लूँ ।
मगर उसकी लीला से अनजान हूँ मैं ,
दो पल का मेहमान हूँ मै ।

जी करता है दिल की बात बतलाऊ  ,
खुद को हँसाऊ खुद को रुलाऊ  ।
माँ की गोद को फिर तकिया बनाऊ ,
बाबा के कंधो पर फिर सवार हो जाऊ ।
उनके दिल में बसे हर चाहत को,
धीरे धीरे सब सच कर जाऊ ।
किसी की आँखों का अरमान हूँ मै,
दो पल का मेहमान हूँ मै ।

तुमसे किये सारे वादे पुरे कर लेता ,
जो मुझे वो कुछ समय और दे देता ।
तुम रूठती तो तुम्हे फिर मना  लेता ,
तुम्हे फिर अपनी धडकनों मे बसा लेता ।
तुम्हारे हाथो को थाम  कर ,
फिर नज़रों से नज़रे मिला लेता।

मगर क्या करूँ ?

ढलता हुआ शाम हूँ मै ,
दो पल का मेहमान हूँ  मै ।


                                    --ऋषभ प्रकाश 

Thursday, 10 January 2013

26 दिसम्बर ,2011
मैं  कश्मीर के एक ऐसे जगह पर था जो  L.O.C. के बेहद करीब है ।
अपने परिवार के साथ जब मैं  कश्मीर के खूबसूरत  नज़ारों का आनंद उठा रहा था ,ठीक उसी वक्त मैने  सड़क के किनारे,बन्दूक सम्हाले ,एक जवान  को बैठे देखा ।चेहरे से उदास दिख रहे उस जवान के मन में क्या चल रहा होगा यह तो मै नहीं बता सकता मगर इसकी कल्पना ज़रूर कर सकता हूँ ।इसी कल्पना की एक झलक  मैं अपनी एक कविता से देना चाहूँगा ।





आँगन तेरे लौट आऊँगा 

वादा तुझसे करता हूँ माँ ,
आँगन तेरे लौट आउँगा ।

जानता हूँ मुझ बिन तू माँ ,
गुमसुम गुपचुप रहती होगी ।
जानता हूँ खुद ही खुद में ,
मेरी बातें करती होगी ।
डरती होगी अन्दर अन्दर .
दूर कहीं मैं खो जाऊँगा ।
वादा तुझसे करता हूँ माँ ,
आँगन तेरे लौट आउँगा ।

 रोटी तेरी याद आती है ,
जब भी भोजन करता हूँ मैं ।
आँखे मेरी भर आती हैं ,
ख़त जो तेरी पढ़ता हूँ मैं ।
फिर ख़त से यह मैं पूछता हूँ ,
अगली ख़त क्या पढ़ पाउँगा ?
 वादा तुझसे करता हूँ माँ ,
आँगन तेरे लौट आउँगा ।

सोंचो जो चुपके से मैं घर पर ,
तुझसे मिलने को आ जाउँ ।
बावरी सी तू हो जाए ,
मैं भी धीरे से मुसकाऊँ । 
फिर मैं अपनी होश गँवा कर ,
सीने तेरे लिपट जाउँगा ।
वादा तुझसे करता हूँ माँ ,
आँगन तेरे लौट आउँगा ।

मिट गया जो देश की खातिर ,
दिल में तेरे सदा रहूँगा ।
बन कर खून मैं भारत का ,
नसों में तेरी बहा करूँगा ।
या फिर सपनों में रातों को ,
तुझसे मिलने आ जाऊँगा ।
 वादा तुझसे करता हूँ माँ ,
आँगन तेरे लौट आउँगा ।

                                --ऋषभ  प्रकाश