ढलता हुआ शाम हूँ मै ,
दो पल का मेहमान हूँ मै ।
जी करता है इस दो पल में ज़िन्दगी जी लूँ ,
अपने हिस्से की सारी हँसी पी लूँ ।
आँखों में नए ख्वाब सजा लूँ ,
कटी पतंग की डोर चुरा लूँ ।
ज़िन्दगी के हर एक हसीं लम्हों को ,
मै एक बार फिर से दोहरा लूँ ।
मगर उसकी लीला से अनजान हूँ मैं ,
दो पल का मेहमान हूँ मै ।
जी करता है दिल की बात बतलाऊ ,
खुद को हँसाऊ खुद को रुलाऊ ।
माँ की गोद को फिर तकिया बनाऊ ,
बाबा के कंधो पर फिर सवार हो जाऊ ।
उनके दिल में बसे हर चाहत को,
धीरे धीरे सब सच कर जाऊ ।
किसी की आँखों का अरमान हूँ मै,
दो पल का मेहमान हूँ मै ।
तुमसे किये सारे वादे पुरे कर लेता ,
जो मुझे वो कुछ समय और दे देता ।
तुम रूठती तो तुम्हे फिर मना लेता ,
तुम्हे फिर अपनी धडकनों मे बसा लेता ।
तुम्हारे हाथो को थाम कर ,
फिर नज़रों से नज़रे मिला लेता।
मगर क्या करूँ ?
ढलता हुआ शाम हूँ मै ,
दो पल का मेहमान हूँ मै ।
--ऋषभ प्रकाश