Friday, 26 September 2014

प्रीत

जिसे देखो वह प्रीत का दाता ,
प्रीत क्यों फिर करीब नहीं है ?

उनके मधुर आवाज़ में भी ,
मनमोहक अंदाज़ में भी ।
ऐतबार जिन पर हर बार हुआ ,
उनके हर अलफ़ाज़ में भी ।
ढूंढता रहा यह सोंच कर कि,
यह प्रीत की हीं मंडी है,
प्रीत का कोई गरीब नहीं है ।
जिसे देखो वह प्रीत का दाता ,
प्रीत क्यों फिर करीब  नहीं है ?

यथार्थपूर्ण बातों में भी ,
वचनों में, वादों में भी ।
हमदर्द मुझे बनाने के,
उनके हर इरादों में भी ।
टटोलता रहा यह सोंच कर कि ,
मिल जाएगी किसी के दर पर
प्रीत महँगी चीज़ नहीं है।
जिसे देखो वह प्रीत का दाता ,
प्रीत क्यों फिर करीब  नहीं है ?

                         -ऋषभ प्रकाश