"अरे रुको तो आ रही हूँ ! एक सेकंड का भी इंतजार नहीं किया जाता इस लड़के से। मैं क्या हवाईजहाज़ हूँ जो उड़ कर आ जाउ दरवाज़े तक?" अंश की माँ ने दरवाजे की तरफ बढ़ते हुए कहा। दरवाजे पर ज़ोर-ज़ोर की दस्तक से माँ समझ चुकि थी कि उसका लाडला बेटा अंश अपनी कोचिंग क्लास से लौट आया है।
दरवाज़ा खुलते ही अंश झटके से अंदर आया और सीधा अपने कमरे की ओर दौड़ा। "अरे क्या हुआ? इतनी जल्दी मे क्यूँ हो?" कहते हुए माँ ने उसका पीछा किया। "माँ आज फिर मैं लेट हो गया। आज फिर छः बजने को है और अब अनिल और अर्जुन मुझे मैच मे शामिल नहीं करेंगे। "कहते हुए अंश ने अपना बस्ता पटका। स्कूल की यूनिफार्म बदले बिना उसने बल्ला उठाया और बाहर की ओर भागा। "अरे बेटा कुछ खा कर तो जा " माँ ने उसे रोकते हुए कहा। मगर अंश कहाँ सुनने वाला था। उसे तो बस किसी तरह मैच में शामिल होने की धुन थी।
अंश अब आठवीं कक्षा मे था। अब उसकी दिनचर्या भी काफी कड़ी हो चुकी थी। सुबह सात से दोपहर दो तक स्कूल हुआ करती थी और उसके बाद चार घंटे की कोचिंग क्लास। जब तक वो कोचिंग से लौटता, छः बज जाते थे और तब तक बाकी बच्चों का खेल समापन पर होता। रोज़ की अब यही कहानी थी। यहाँ तक कि शनिवार और रविवार भी अब स्कूल और कोचिंग के होमवर्क मे हीं निकल जाते थे।
अंश जब दौड़ते भागते कालोनी के पीछे वाले मैदान तक पहुँचा तो उसने अर्जुन को बल्लेबाजी करते देख राहत की साँस ली। उसे इस बात की ख़ुशी थी कि खेल अब तक जारी है।
"अर्जुन , मैं किसकी टीम मे?" अंश ने दूर से ही आवाज़ लगा कर पूछा।
"अंश तू फिर लेट हो गया है। मैच की पहली पारी समाप्त हो चुकी है और इस वक़्त हम तुझे मैच में शामिल नहीं कर सकते।" कहते हुए अर्जुन ने उसकी तरफ से मुंह मोड़ लिया और अगली गेंद के लिए खुद को तैयार करने लगा।
"मगर अर्जुन मै सिर्फ आधा घंटा हीं तो लेट हुआ हूँ। मेरे कोचिंग क्लासेस के वजह से मुझे आने में थोड़ी देर हो गई। आज शामिल कर ले, मैं आइंदे से जल्दी आने की कोशिश करूँगा। "
"यह तेरा रोज़ का बहाना है अंश। तू हर दिन यही बात कहता है और हर दिन ऐसे हीं लेट आता है। माफ़ करना अंश मगर आज हमारा खेल काफी आगे निकल चूका है और दोनों पक्षो में ११ ख़िलाड़ी पूरे हो चुके हैं । "कह कर अर्जुन ने गेंदबाज को गेंद डालने का इशारा किया।
अंश ने दोबारा अर्जुन से कोई अपील नहीं की। वह चुप चाप मैदान के घेरे से बाहर निकल गया।अंश अभी कुछ ही कदम घर की तरफ चला था कि उसके कदम अचानक थम गए। उसके मन में अचानक कई सारी बाते चलने लगीं ,कई सारे सवाल उमड़ने लगे। वह जैसे उलझ सा गया था और अपनी उलझी पहेली सुलझाना चाहता था। अपनी नीरस दिनचर्या से तंग आ चुका अंश कुछ समय निकाल कर खुद से समझौता करना चाहता था। उसे पता था घर पर, पहले स्कूल के होमवर्क और फिर कोचिंग के होमवर्क उसका इंतज़ार कर रहे हैं। उसे पता था घर पहुँचते हीं वह पुनः पढ़ाई की उसी चक्र में उलझने वाला है।
अंश सड़क के किनारे के एक छोटे से पार्क में बने खाली बेंच पर जा बैठा। उसी पार्क में कई छोटे बच्चे आपस में तरह-तरह के खेल खेलने में मग्न थे। उनके चेहरों पर ना कोई निराशा के चिंह नज़र आ रहे थे और ना माथे पर किसी चिंता की लकीर। आँखों में चमक लिए, बेपरवाह खेलते बच्चों को देख कर अंश ने खुद से पूछा "क्या मैं अब बड़ा हो गया हूँ? क्या अब मुझे इन बच्चों की तरह बेफिक्र हो कर खेलने का कोई हक़ नही? क्या ज़िन्दगी में ज़िम्मेदारिओ का आना मतलब बचपन का मर जाना होता है? क्या मेरा बचपन अब कभी नहीं लौटेगा?"
ऐसे अनगिनत सवालों के बीच घिर गया था अंश। छठी कक्षा तक अंश प्रत्येक शाम खेलने जाया करता था । अंश एक अच्छा क्रिकेटर था। उसकी क्रिकेट में रुचि देख उसके पिता ने उसके जन्म दिन पर उसे एक "क्रिकेट किट" उपहार दिया था। उसने अपने स्कूल मे होने वाले वार्षिक क्रिकेट मैच टूर्नामेंट में कई पुरुस्कार जीते थे। मगर आठवी कक्षा में प्रवेश के बाद सब कुछ बदल गया। अंश के पिता उसे इंजीनियर बनाना चाहते थें। इसी होड़ में उन्होंने अंश का दाखिला पास के एक आई. आई. टी. कोचिंग सेंटर मे करवा दिया। फिर क्या था। स्कूल और फिर चार घंटे की कोचिंग के बाद अंश मे न खेल-कूद के लिए ऊर्जा बचती थी और ना उत्साह। पढ़ाई अब उसके लिए बोझ बन गया था जिसे वह जैसे-तैसे ढ़ो रहा था। पढ़ाई उस पर इस तरह हावी हो गया था कि वह अंदर ही अंदर घुटन महसूस करने लगा था। लाख कोशिशों के बाद भी वह अपने लिए समय निकालने में असमर्थ था। अंश शिकार था एक ऐसे भगदड़ का जो न जाने भारत के कितने बच्चों को कुचल चुका था। अंश अपने पिता को निराश किये बगैर उस भगदड़ से बाहर आना चाहता था। वह जीना चाहता था। अंश उदास था। परेशान था।
अंश विचार धारा मे इतना लीन हो गया कि उसे समय का पता ही नहीं चला। अंधकार हो चुकी थी। सारे बच्चे जा चुके थे। अंश अब उस पार्क में अकेला बचा था। भारी मन से उसने अपना बल्ला उठाया और घर की तरफ रवाना हो गया।
मगर कुछ और भी हुआ उस शाम। वापस घर लौटते वक़्त, अंश ने इन सारे दुविधाओं के बीच एक प्रण लिया कि वह अपने पिता से कह कर कोचिंग क्लास हमेशा के लिए छोड़ देगा। उसमे एक कामयाब इंसान बन ने की इच्छा ज़रूर थी मगर उसके बदले वह अपना बचपन दाँव पर नहीं लगा सकता था। अंश अब भी बच्चा था और उसे अपना बचपन जीने का पूरा हक़ था।
-ऋषभ प्रकाश